पुणे न्यूज डेस्क: पुणे में गिलियन-बैरे सिंड्रोम (जीबीएस) के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, जिससे शहर के अस्पतालों में आईसीयू बेड की भारी कमी हो गई है। 5 जनवरी के बाद अब तक 205 मामले दर्ज हो चुके हैं, जिनमें से 100 मरीज ठीक होकर डिस्चार्ज हो चुके हैं, जबकि 50 अभी भी आईसीयू में भर्ती हैं और 20 वेंटिलेटर सपोर्ट पर हैं। सरकारी अस्पतालों में मरीजों का दबाव बढ़ता जा रहा है, क्योंकि प्राइवेट हॉस्पिटल में महंगे इलाज की वजह से कई लोग वहां जाने में असमर्थ हैं। डॉक्टरों के मुताबिक, जीबीएस के मरीजों को लंबे समय तक आईसीयू में रखने की जरूरत पड़ती है, जिससे नए मरीजों के लिए बेड उपलब्ध कराना मुश्किल हो रहा है।
ससून अस्पताल और नवले अस्पताल जैसे बड़े सरकारी अस्पतालों में आईसीयू बेड फुल हो चुके हैं। ससून अस्पताल के 39 आईसीयू बेड पूरी तरह भरे हुए हैं, वहीं नवले अस्पताल के 37 बेड भी इमरजेंसी केस से भरे पड़े हैं। जीबीएस के मरीजों को सांस लेने में दिक्कत और मांसपेशियों में कमजोरी के कारण दो से तीन हफ्तों तक वेंटिलेटर सपोर्ट की जरूरत होती है, जबकि अन्य गंभीर बीमारियों में मरीजों को सिर्फ दो-तीन दिनों के लिए वेंटिलेटर पर रखा जाता है। अस्पताल प्रशासन के मुताबिक, अगर नए मरीज आते हैं, तो उनके लिए एडमिशन देना मुश्किल हो सकता है। इसके अलावा, हार्ट सर्जरी और डायलिसिस वाले मरीजों को भी आईसीयू बेड की जरूरत पड़ती है, जिससे हालात और भी चुनौतीपूर्ण हो गए हैं।
जीबीएस का इलाज बेहद महंगा है, जिससे सरकारी अस्पतालों पर अत्यधिक दबाव बढ़ रहा है। एक आईवी इंजेक्शन की कीमत 20,000 रुपये तक होती है, और मरीजों को कम से कम 7-8 इंजेक्शन लगते हैं, जिससे इलाज का खर्च 10 लाख रुपये से ज्यादा हो सकता है। प्राइवेट अस्पतालों में महात्मा ज्योतिबा फुले जन आरोग्य योजना (MJPJAY) के तहत इलाज संभव है, लेकिन इसमें 2.6 लाख रुपये की लिमिट होती है, जो इस बीमारी के इलाज के लिए पर्याप्त नहीं है। इस वजह से प्राइवेट में इलाज कराने वाले मरीज भी अब सरकारी अस्पतालों की ओर रुख कर रहे हैं। ससून और नवले अस्पताल में मुफ्त इलाज की सुविधा है, जिसमें आईवी इंजेक्शन और प्लाज्माफेरेसिस शामिल हैं, जिससे गरीब मरीजों को राहत जरूर मिली है। हालांकि, बढ़ते मामलों की वजह से अस्पतालों के संसाधनों और स्टाफ पर भारी दबाव पड़ रहा है, जिससे आने वाले दिनों में स्थिति और गंभीर हो सकती है।