मुंबई, 15 नवंबर, (न्यूज़ हेल्पलाइन)। सुप्रीम कोर्ट ने 12 नवंबर को केंद्र सरकार की मैटरनिटी लीव पॉलिसी को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की। याचिकाकर्ता ने केंद्र सरकारी की मैटरनिटी बेनिफिट अमेंडमेंट एक्ट के सेक्शन 5(4), 2017 की कॉन्स्टिट्यूशनल वैलिडिटी को चुनौती दी है। याचिकाकर्ता ने कहा है कि 3 महीने से ज्यादा उम्र के बच्चों को गोद लेने पर मैटरनिटी लीव नहीं मिलती है। ऐसे में बच्चा गोद लेने वाली माताओं को दी गई कथित 12 सप्ताह की मैटरनिटी लीव सिर्फ एक दिखावा है। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस पंकज मिठल की बेंच ने इस संबंध में केंद्र सरकार से 3 हफ्ते में अपना जवाब दाखिल करने का कहा है। साथ ही जवाब की कॉपी पहले याचिकाकर्ता को देने के निर्देश दिए हैं। अभी नियम ये है कि 3 महीने से कम उम्र के बच्चों को गोद लेने वाली या सरोगेट माताओं को 12 हफ्तों की छुट्टी मिलेगी। लेकिन 3 महीने से ज्यादा के बच्चों को गोद लेने पर मैटरनिटी लीव का कोई प्रावधान नहीं है।
जस्टिस पारदीवाला ने कहा, याचिका में कहा गया है कि केंद्र ने 3 महीने की उम्र को सही ठहराते हुए अपना जवाब दाखिल किया है, लेकिन सुनवाई के दौरान कई मुद्दे सामने आए हैं जिन पर विचार करने की जरूरत है। ये क्या तर्क है कि बच्चा 3 महीने या उससे कम का होना चाहिए? मैटरनिटी लीव देने का मकसद क्या है? इसको लेकर केंद्र से 3 सप्ताह के अंदर जवाब पेश करे। वहीं, याचिका में कहा गया है की, धारा 5(4) बच्चा गोद लेने वाली माताओं के साथ भेदभावपूर्ण और मनमानी के जैसी है। साथ ही 3 महीने और उससे ज्यादा उम्र के वो बच्चे जो अनाथ हैं, छोड़े गए हैं या सरेंडर (अनाथालय) किए गए हैं, उनके साथ भी मनमाना व्यवहार करती है। ये मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के मोटिव के साथ पूरी तरह से न्याय नहीं करती है। धारा 5(4) बायोलॉजिकल माताओं को दिए जाने वाले 26 सप्ताह की मैटरनिटी लीव की तुलना बच्चा गोद लेने वाली माताओं को मिलने वाली 12 सप्ताह की लीव से करना संविधान के भाग III की बुनियादी जांच में भी नहीं टिक पाती है। इसमें मनमानी नजर आती है।